THE BEST SIDE OF अहंकार की क्षणिक प्रकृति: विनम्रता का एक पाठ

The best Side of अहंकार की क्षणिक प्रकृति: विनम्रता का एक पाठ

The best Side of अहंकार की क्षणिक प्रकृति: विनम्रता का एक पाठ

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आचार्य: “हम बड़े संतोषी जीव हैं, हम ज़्यादा कुछ माँगते ही नहीं। तुम्हारी बादशाहत तुम्हें मुबारक हो। हमें तो ला दो बस थोड़ा-सा नशा।” ये तमसा है।

और जो दो बच्चियाँ हैं जो पढ़ रही हैं, उनको भी मेरा कहना यही है कि शादी करना हो तो करना, अन्यथा मुझे कोई दिक्कत नहीं है। मेरी पहले भी ऐसी सोच नहीं थी की दहेज दे कर या विशेष चर्चा करके शादी करना चाहूँगा। पढ़ाई के लिए मैं तैयार हूँ कि कहाँ तक जा सकते हो?

नामी खिलाड़ी बन जाने के बाद भी वह साधारण लोगों की तरह भीड़ भरे स्टेशनों पर

अन्तरजाल पर साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं आपको करीब-करीब सात-आठ महीनों से सुन रहा हूँ। करीब आपके बीस-पच्चीस कोर्सेज़ भी किये। मेरे तीन बच्चे हैं। एक अट्ठाइस साल का बेटा है, एक बाईस साल की और एक अठारह साल की बेटीयाँ है। तो आपसे मिलने के पहले मैं बच्चे से ये कह रहा था कि अट्ठाईस साल‌ के हो गये हो तो शादी कर लो। जब मैंने आपको सुना, अब उससे मैं ये बोलता हूँ, 'चाहो तो करना, इच्छा हो तो करना, नहीं तो मुझे दिक्कत नहीं है।'

प्र: आचार्य जी, यदि शहर और जंगल या पहाड़ एक समान प्रकृति हैं, तो फिर पहाड़ या जंगल में जाने पर शान्ति क्यों महसूस होती है?

ये प्रार्थना का असर होता है। लेकिन आप अगर अपनी इतनी सी भी ताक़त का पूरी तरीक़े से उपयुक्त नहीं करेंगे, लगाएँगे नहीं, डर के बैठे रहेंगे, 'मैं क्या करूँ, दुनिया बहुत बड़ी है, मुझे मसल देगी। हाय! मेरा क्या होगा?

संघर्ष करते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए।

क्योंकि माफ़ी माँगने का अर्थ है किसी के सामने झुकना, अपने को छोटा बनाना। यह

जैसे कि एक व्यक्ति अपने नौकरी के लिए विज्ञापन दिया है यह न्यूज़ पेपर में आप एक

का सितारा बनने तक की यात्रा तय की है। लगभग सौ शब्दों में इस सफ़र का वर्णन

अब उसे यक़ीन हो गया है कि वो ‘मैं’ है। उसे दिक़्क़त भी बहुत है अपने-आपसे। उसका नाम ही दिक़्क़त है। अगर दिक़्क़त मिटी तो कौन मिटेगा? वो मिटेगा, और उसका नाम है ‘मैं’। अगर वो मिटा तो फिर ‘मैं’ ही मिट जाएगा। ‘मैं’ माने हस्ती, ‘मैं’ check here माने होना। तो कहेगा, "फ़िर दिक़्क़त मिटाकर क्या फायदा अगर कोई बचेगा ही नहीं?"

तामसिक आदमी जहाँ है, वो वहीं ठहर गया है, वो भाग नहीं रहा है। ठहर तो वो गया है, पर वो ग़लत जगह ठहर गया है। और वो ऐसा ठहरा है कि अब हिलने-डुलने में उसकी रुचि नहीं। प्रमाद और आलस उसकी पहचान बन गए हैं। उसमें अब कोई महत्वाकांक्षा भी नहीं, उससे तुम कहोगे कि “कुछ चाहिए?

‘मैं’ के साथ दिक़्क़त ये है कि वो ख़ुद ही दिक़्क़त है। दिक़्क़त हटी तो ‘मैं’ भी हटेगा। अब ‘मैं’ कहता है “हम फिर दिक़्क़त हटाएँ क्यों अगर दिक़्क़त के हटने के साथ हम भी मिट जाएँगे तो?”

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